
कई लोग ऐसा सोचते हैं कि कुछ विद्यार्थी मेहनत करते हैं और कुछ नहीं भी करते, तभी तो फ़ेल हो जाते हैं। लेकिन बहुत-सी और धारणाओं की ही तरह यह धारणा भी बिल्कुल ग़लत है। हर एक मेहनत करता है, लेकिन फ़र्क़ यह है कि कुछ पढ़ने में महनत करते हैं और कुछ खर्रे-पर्चियाँ बनाने में। दोनों ही रात-रात भर जाग कर काम करते रहते हैं।
लेकिन असलियत ये है कि खर्रे बनाने में ज़्यादा महनत लगती है और पढ़ाई करने में कम। हमारा एक सहपाठी है, नाम है पुत्तन। बेचारा साल भर कुछ ख़ास पढ़ नहीं पाया; उसके हिसाब से इसमें सारा-का-सारा दोष अध्यापकों, माँ-बाप, पड़ोसियों, परिस्थितियों और भगवान का है। हमें भी उसकी बात जँचती है, इन सब का दोष न होता तो भला कैसे दिन भर पास वाले गर्ल्स कॉलेज के गेट पर खड़ा रह पाता? ख़ैर, इम्तिहान से एक दिन पहले हमारे पास आया और विषय, किताब और उसकी कुंजी का नाम पता करके चला गया। रात को उसका फ़ोन आया – कुछ सवालों को पढ़ कर सुनाया और पूछने लगा, किस चैप्टर में मिलेंगे। हमने बता दिया, लेकिन साथ ही ऐसा लगा कि हमसे चुन-चुन के कुछ सवाल ही क्यों पूछ रहा है? हो-न-हो ज़रूर पर्चा आउट करा लिया है, जो कि ऐसे न पढ़ने वाले जुगाड़ी छात्र अक़्सर कराने की कोशिश करते हैं। ख़ैर, बात आई-गई हो गई।
अगले दिन परीक्षा में वो हमसे तीन-चार बेंच आगे बैठा था और दनादन नक़ल किए जा रहा था। परीक्षा के दौरान कमरे में उड़न दस्ता आया – और ख़ास बात यह है कि ये लोग भी देखते ही पहचान जाते हैं कि कौन नक़लती है, केवल शक़्ल देख कर ही। मानो पहुँचे हुए संत हों और चेहरा देख कर ही आगत-अनागत सब समझ जाते हों। तो उनमें से एक खूंसठ-सा दिखने वाला मास्टर पुत्तन की ओर बढ़ा, उसे अपनी ओर बढ़ते हुए देख कर पुत्तन के होश फ़ाख्ता हो गए। लेकिन पुत्तन भी मंझा हुआ खिलाड़ी था, ऐंवईं नहीं था, खेला-खाया था। जल्दी से पर्चिर्यों को गुड़ी-मुड़ी करके एक छोटी गोली बनाई और खा गया और इस तरह बच भी गया। हालाँकि इसके बाद वह एक भी सवाल हल नहीं कर पाया और कापी पर बस चील-बिलौए बनाता रहा। अब बताइए कि यह काम ज़्यादा मुश्किल है या फिर पढ़ाई करके उत्तीर्ण होना।
पुत्तन की ये हरकत देख कर हम अचम्भित रह गए। लेकिन ये तो कुछ भी नहीं है, नक़लचियों ने न जाने कितने नए-नए तरीक़े इजाद कर रखे हैं। एक लड़का हमारे पास ही बैठता था और शक़्ल से निहायत ही भोला-भाला शरीफ़ बांका गबरू नौजवान दिखाई देता था। हालाँकि गबरू नौजवान तो था, लेकिन हमारे बाक़ी सोचे गए विशेषण सब-के-सब ग़लत साबित हुए। वो बॉल-पेन के अन्दर खर्रे घुसा के लाता था। हमने सुना है कि आज़ादी से पहले पूर्वी बंगाल में ऐसा बेहतरीन मलमल का कपड़ा बनता था, कि एक माचिस की डिब्बी में से पूरी-की-पूरी मलमल की साड़ी निकल आती थी। पहले हमें इस बात पर यक़ीन नहीं होता था। लेकिन जब उस लड़के के पेन के अन्दर से दस्ते के दस्ते काग़ज़ निकलते देखे, तो उन पुरानी सुनी-सुनाई बातों पर भी यक़ीन हो गया। किसी ने हमें बताया कि मुंह में मोमिया दबाकर उसके अन्दर नक़ल कैसे छिपाई जाए, तो कोई छुपाने के इस गुह्य कार्य के लिए अपने अधोवस्त्रों का इस्तेमाल करने की सलाह देता मिला। ऐसी मौलिक सोच पढ़ने-लिखने वालों में नहीं होती है। नक़लची जिस शिद्दत से नई-नई नक़ल की विधियाँ खोजते रहते हैं, उसका मुक़ाबला तो वैज्ञानिक भी नहीं कर सकते हैं।
और दूसरे सभी क्षेत्रों की तरह नक़ल में भी वही मात खाते हैं, वही पिटते हैं, वही पकड़े चाते हैं; जो या तो पुराने तरीक़ों पर ही अटकें हों, रुढिवादी परंपरागत ढ़र्रे पर पुराने तरीक़ों से नक़ल कर रहे हों। या फिर नौसीखिए, जिनमें नक़ल के तजुर्बे की अभी काफ़ी कमी है। अब मेरे ही कमरे में एक पकड़ा गया। वो मूर्ख था और इसीलिए पकड़ा भी जाना चाहिए था। नक़ल का वही एजओल्ड तरीक़ा, वह मूढ़ अपने जूतों में खर्रे छिपा कर लाया था। इसी तरह एक मूरख अपनी बाहों पर कुछ फ़ॉर्मूले लिख कर लाया था और पकड़ा गया। बाद में पुत्तन से इस बाबत बात हुई, उसका मानना है ऐसे लोगों का पकड़ा जाना नक़ल की कला के विकास के लिए निहायत ज़रूरी है। ये सब बच के निकल गए तो नक़ल के नए तरीक़ो की खोज को गहरा धक्का लगेगा। इस दौरान बहुत-से नौसीखिए भी देखने को मिले, जो सामने टीचर को देखकर घबरा जाते हैं और उनका चेहरा देखकर ही टीचर की समझ में आ जाता है कि छोकरा नक़ल कर रहा है। ऐसे लोगों का तो एक ही इलाज है – अभ्यास। जैसे-जैसे ये लोग इम्तिहान देते जाएंगे, अपने आप ही पक्के घड़े हो जाएंगे।
फिर अगर कोई बार-बार टॉइलेट जा रहा हो, तो समझना चाहिए कि वह पक्का नक़लची है। इम्तेहान के वक़्त बड़े-से-बड़ा पुस्तकालय भी टॉयलेट से रश्क़ खाता है। वहाँ किताबों की किताबें, पर्चियों की पर्चियाँ, नोट्स के नोट्स – सभी कुछ बहुतायत में पाए जा सकते हैं। वो तो हमारे पुराने कुसंस्कार थे कि हम वहाँ किसी भी चीज़ को उठा नहीं पाए, अगर कोई होशियार होता तो काग़ज़ो को उठा बाइंड करवा कर बेचता और चार-पाँच हज़ार तो आराम से कमा ही सकता था।
जब पूरी कक्षा में नक़ल धड़ल्ले से चल रही हो, तो हमारे जैसे लोग सबसे बेचारों की श्रेणी में आते हैं। हाल में ऐसा ही वाक़या हुआ, जिसके बाद हमें अपनी नालायकी पर बहुत ग़ुस्सा आया। हुआ यूं कि हमें एक प्रश्न नहीं आ रहा था और हमारे नक़लची पड़ोसी को खर्रा देव की कृपा से वो सवाल आता था। वैसे तो हमारी आँखें सिक्स-बाई-सिक्स हैं, लेकिन नक़ल के नाम से इतनी घबराहट होती है कि दिखना बन्द हो जाता है। उसने अपनी कापी थोड़ी-सी हमारी ओर सरकाई और पन्ना ऐसे पकड़ा कि उसका काम भी दनादन चलता रहे और हमारी नैया भी पार हो जाए। लेकिन नहीं, घबराहट के मारे हमें कुछ दिखता ही नहीं था कि अल्फ़ा बना है या बीटा, डिफ़्रेंशिएट किया है या इंटीग्रेट। दरअसल यह बचपन के कुसंस्कारों का ही दुष्परिणाम है। बचपन में हमारे कस्बे में एक नोटबुक बिकती थी, जिसके पीछे पट्ठे पर लिखा रहता था –
नक़ल हमेशा होती है, बराबरी कभी नहीं
सुन्दर लेखन का सपना, सपना ब्रांड कापियाँ हमेशा ख़रीदें
लगता है इसकी पहली पंक्ति का बहुत गहरा दुष्प्रभाव हमारे मन पर पड़ा। हालाँकि दूसरी पंक्ति का कोई ख़ास असर नहीं हुआ, क्योंकि हम दूसरे ब्रांड की कापियाँ भी बदस्तूर ख़रीदते रहे। ऐसे लोगों के बारे में यानी कि हम जैसे लोगों के बारे में हमने जब पुत्तन से जानना चाहा कि क्या हो सकता है ऐसों का, तो उसने ज्ञानी की तरह मुखमुद्रा बना कर कहा – ऐसे निकम्मे, नालायक और पढ़ाकू उल्लुओं का कुछ नहीं हो सकता, इन्हें नक़ल के दीन-धरम का अधिकार नहीं है। बस, हम मायूस हो गए कि बंदा कहता तो सही ही है। हमारे मुंह से बस इतना ही निकला – आसां नहीं है नक़लची होना भी।