
आजकल
कविराज चिट्ठा मण्डल में लोगों को पकड़-पकड़ कर
सागर जी को हँसवाने का काम करा रहे हैं। हम यूँ ही निर्द्वन्द्व भाव से चिट्ठा जगत् में विचरण कर रहे थे, इतने में कविराज ने पकड़ लिया और बोले – “अब तुम्हारी बारी है। कुछ भी करो, लेकिन सागर भाई को हँसाओ।” हमने बहुत मान-मनुहार की कि हमें बख़्श दो, जाने दो, लेकिन कविराज थे कि टस-से-मस नहीं हुए। हालाँकि हम भी मूर्ख हैं जो कविराज से अनुनय-विनय कर रहे थे। क्योंकि इंसान कवि बन ही तब पाता है जब उसमें दूसरे को पकड़ कर रखने का (दुर्)गुण विकसित हो गया हो, दूसरा चाहे कितना ही गिड़गिड़ाए लेकिन कवि उसे कविता झिलाए बिना नहीं छोड़ता है। पहले तो हमारे मन मैं आया कि कहें – किसी बेचारे को अपनी ख़तरनाक कविताएँ ज़बरदस्ती पढ़ा-पढ़ा कर इतना टॉर्चर ही काहे करते हो, कि बाद में हँसाने के लिए ज़मीन-आसमान एक करने पड़ें। लेकिन अपनी अघोषित सज्जनता दिखलाने के लिए हमने ऐसा कुछ कहने से गुरेज़ किया।
ख़ैर, जिस तरह पाकिस्तान अपने मिसाइल कार्यक्रम के लिए हमेशा चीन की सूरत ताकता है, ठीक उसी तरह हम इस काम को पूरा करने के लिए दूसरे चिट्ठाकारों की मदद लेने की कोशिश करने लगे। हमने सोचा कि पहले महाचिट्ठाकार
जीतू भाई को पकड़ा जाए। उन्हें तो झक मार कर मदद करनी ही पड़ेगी, क्योंकि उन पर हमारे सौ रूपए जो उधार हैं। सो सबसे पहले उन्हें पकड़ा, लेकिन जीतू भाई का मूड ज़रा ऑफ़ था। हम तुरन्त समझ गए, हो-न-हो जीतू-नामधारी छद्म ब्लॉगर की कहीं ताज़ी टिप्पणी हो चुकी है। तो हमने सहानुभूति के दो शब्द कहे, जीतू भाई से राम-राम की और निकल लिए। वैसे हम बता दें, अगर किसी भी पोस्ट पर ‘जीतू’ नाम से दो टिप्पणियाँ नज़र आएँ, तो समझो कि नीचे वाली टिप्पणी में लिखा होगा – यह ऊपर वाली टिप्पणी हमने नहीं की है।
फिर हमने सोचा कि केवल
आलोक जी ही हमारी मदद कर सकते हैं, क्योंकि आदि काल से वो लोगों की कम्प्यूटर पर हिन्दी लिखने में मदद करते आ रहे हैं। स्वभाव से ही मदद-प्रिय हैं, तो हमारा काम ज़रूर बनवा देंगे। पहले हमने उनकी थोड़ी मक्खनबाज़ी की, तारीफ़ की – आप तो हिन्दी ब्लॉग जगत् के पितामह हैं वगैरह, वगैरह। सुनकर आलोक जी गदगद हो गए और हमें लगा कि हमारा काम बन गया। वे बोले – “वत्स, हम खुश हुए। लाओ तुम्हारी यह पोस्ट हम लिख देते हैं। जाओ, अब कल आना।” हमारी ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही न रहा। हम अगले दिन पहुँचे और पोस्ट मांगी। उन्होंने विजिटिंग कार्ड के आकार का काग़ज़ एक टुकड़ा हमारी तरफ़ सरका दिया, उस पर लिखा था – “सागर भाई को हँसाना है... हा हा हा।” हमें लगा कि आलोक जी से ज़रूर कौन्हूँ भूल हो गई है और हम बोले – आपसे समझने में कुछ ग़ल्ती हो गई है, हमें सागर जी को तार नहीं भेजना है। हमें तो पूरी ब्लॉग पोस्ट लिखनी है। सुनकर आलोक भाई हँसे और हमें सदमा देने के लिए बोले – “बच्चा, ये पूरी पोस्ट ही है।” इत्ते में पीछे बैकग्राउण्ड सांग बजने लगा – मैं रोऊँ या हँसू, करूँ मैं क्या करूँ। हमने उन्हें प्रणाम किया और निकल लिए उस ‘वेद मंत्र’ वाली पर्ची को हाथ में लेकर।
“जो हुआ सो हुआ,
फ़ुरसतिया जी सदा सहाय” – मन में ये शब्द न जाने कहाँ से गूंजे और दिल को बहुत तसल्ली दे गए। फ़ुरसतिया जी ने भी सहायता का वचन दिया और अगले दिन आने को कहा। हम दिल में हर्ष और भय मिश्रित भाव लेकर लौट आए। हर्ष इसलिए कि महान व्यंग्यकार हमारी मदद करेंगे तो सागर भाई का हँसना पक्का है, लेकिन भय इसलिए कि आलोक भाई ने भी इसी तरह अगले दिन बुला कर खर्रा पकड़ा दिया था। जैसे सुख का विलोम दु:ख होता है, आसमान का पाताल होता है, वैसे ही ‘आलोक’ का विलोम ‘अनूप’ होता है – ये बात हमें नई-नई पता लगी। अगले दिन पहुँचे तो अनूप जी ने हज़ार पन्नों की एक पांडुलिपी निकाल कर दे दी, बोले – “तुम्हारे लिए कल ये लिख दी थी, बस टाइप कर लेना।” हमें फिर लगा कि हो-न-हो, अनूप जी हमारी बात समझ नहीं पाए हैं। हमने कहा – “शायद आपको कुछ ग़लतफ़हमी हो गई है। हमने उपन्यास के लिए नहीं कहा था। हमें तो एक छोटी-सी ब्लॉग पोस्ट लिखनी है।” वे बोले – “ये तुम्हारे ब्लॉग के लिए ही है। अब नाटक मत करो और इसे चुपचाप ले जाओ। हमारे ब्लॉग के हिसाब से यह बहुत छोटी पोस्ट बनेगी।” बात तो ठीक ही लगी, फ़ुरसतिया जी की ब्लॉग पोस्ट का आकार तो इससे बहुत बड़ा होता है। सो हम पांडुलिपी ले तो आए, लेकिन टाइप करने की हिम्मत नहीं जुटा सके।
थक-हार कर हम आखिरकार
समीर लाल जी के पास पहुँचे। कहा कि ‘अब तो बस आप ही उबारिए, कोई कुण्डलिया रच संकट से हमें तारिए’। किसी नौसीखिए कवि की तरह की गई हमारी इस ऊट-पटांग तुकबंदी से समीर जी प्रसन्न हो गए और हमें संकट से उबारने का वचन दे बाद में फिर बुलाया। बाद में पहुँचने पर यह रचना हमारे हाथ में थमा दी -
सागर भाई को हँसाना है, काम नहीं है आसान
विफल हुए ये करते-करते, बहुत से लोग महान
बहुत से लोग महान, हार समाए काल के गाल
उनमें जीत सका बस एक, नाम है समीर लाल
कहे ‘समीर’ तुममें नैक सी भी अक़ल हो अगर
छोड़ो ये सब काम, क्या कभी हँसा भी है सागर?
हमने कहा कि आपकी कविता तो बढ़िया है, लेकिन ये तो आपके ही नाम से है। हमारा इसमें क्या है, लिखना था तो हमारे नाम से लिखते न। इस पर समीर जी ने अफ़सोस जताया – “अपने नाम से पचास कुण्डलिया प्रतिदिन की दर से लिखते-लिखते आदत पड़ गई है बीच में नाम घुसाने की। अब यही ले जाओ।” तो हम वही लेते आए उनके पास से।
इसके बाद तो हमसे एक बहुत बड़ी ग़लती हो गई कि हम
अमित भाई के पास पहुँच गए। अमित भाई से मदद के लिए कहा तो न जाने किस बात पर नाराज़ हो गए। उनका रंग लाल हो गया, सर पर दो सींग निकल आए, नाक और कान से धूआँ निकलने लगा और वे ज़ोर-ज़ारे से उछलने लगे। ग़ुस्से में बोले – “मुझे सब ख़बर है कि तुम कई ब्लॉगरों को परेशान करके आ रहे हो। अब मैं तुम्हें और ब्लॉगर्स को परेशान नहीं करने दूंगा। वैसे भी तुम हमेशा ग़लत कैटेगरी में थ्रेड चालू करते हो। तुम्हारा यह बेहूदा थ्रेड यहीं बन्द किया जाता है।” हम वहाँ से उल्टे पांव दौड़ आए और अपनी जान बचाई।
हम जाना तो और भी बहुत-से दूसरे चिट्ठाकारों के पास चाहते थे, लेकिन अब हमारा थ्रेड ही अमित भाई ने बंद कर दिया है तो क्या करें। सो अब हमें ही कुछ करना पड़ेगा। जहाँ तक हमें याद पड़ता है, हमें ब्लॉग पर इंटरनेट से चुराए हुए सुन्दरियों के फोटुओं को चिपकाने के अलावा बाक़ी कुछ नहीं आता है। सो फ़ोटू चिपकाए देते हैं, देखकर सागर भाई को हँसी आए, रोना आए या दिल में कुछ और ही ख़्याल आए... ये खुद उनकी ज़िम्मेदारी है।
यहाँ पर देख लीजिए।